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उसका अपना आकाश

प्रतिभा राय

प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :116
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6091
आईएसबीएन :9788170287254

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प्रस्तुत है पुस्तक उसका अपना आकाश...

Uska Apna Aakash

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उड़िया की प्रतिष्ठित लेखिका तथा अपने उपन्यास ‘द्रौपदी’ पर मूर्तिदेवी पुरस्कार से सम्मानित प्रतिभा राय का रचना-फलक बहुत बड़ा है और वह अपने लेखन के जरिये बहुत बड़े पाठक समूह तक अपनी पहुंच बनाती है। उनकी कहानियां पुस्तकों के अलावा फिल्म के माध्यम से भी लोगों तक पहुंचती हैं और सराही गयी हैं।

‘उसका अपना आकाश’ इसी क्रम में उनका अपने ही ढंग का उपन्यास है, जिसमें एक स्वस्थ, उल्लास भरा बचपन जी कर एक लड़की असाध्य रूप से अपंग हो जाती है, फिर जब तक वह जीती है, उसके जीने के अपने अर्थ हैं। उसके जीवन में बहुत से लोगों के सुख-दुःख शामिल है और असमय मृत्य को पाकर भी वह जैसे भरपूर जीवन जी गयी है।
अपने कथ्य, भाषा और शिल्प के कारण यह उपन्यास अपने पाठकों को प्रभावित करेगा।
भारतीय ज्ञानपीठ के मूर्तिदेवी पुरस्कार से सम्मानित तथा ओड़िया साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत प्रतिभा राय का उपन्यास ‘उसका अपना आकाश’ एक अनूठी कृति है।

मरना जीवन का अंत नहीं होता और न ही मृत्यु का इंतज़ार जीवन के प्रति उत्साह को खत्म करता है, बशर्ते आपके पास जीवन के अपने अर्थ हों और उसमें आप अकेले न होकर एक बड़ा संसार हो।

प्रस्तुत उपन्यास प्रतिभा राय की मूल ओड़िया कृति ‘देहातीत’ का हिन्दी भाषान्तर है, जो. डॉ. भगवान त्रिपाठी जैसे अनुभवी अनुवादक द्वारा हिन्दी में पहली बार प्रस्तुत है तथा मूल कृति जैसा ही प्रभाव छोड़ता है।

जिसके हाथों में समर्पित करती—वह शरीर लिए हुए नहीं है। ‘शरीर मिथ्या—आत्मा सत्य’ —यह थी उसके जीने की शैली। सोने में खोट मिले तो अलंकार बनते हैं—सत्य में कल्पना मिले तो कथा बनती है। इस कथा के कुछ चरित्र और घटनाएँ भले ही काल्पनिक हों, लेकिन जिसके लिए यह कथा बनी है—वह सत्य है—उसके शरीर की पीड़ा सत्य है—उसकी अविनाशी आत्मा सत्य है। देह के होते हुए भी, जो देह की अधीनता से मुक्त थी, उसकी देहातीत आत्मा को समर्पित है यह ‘उसका अपना आकाश’।

प्रतिभा दीदी

उसका अपना आकाश

जीवन के अभिनय न मानकर, अभिनय को ही जीवन मान बैठने के कारण मनुष्य दुःख भोगता है।
खुद को बारीकी से खोजा जाए, तो उसमें अभिनय के सिवा और होता क्या है ?
रंगमंच पर बैठा हुआ मनुष्य सोचता है, ‘‘यह मेरी गद्दी है, मैं सम्राट हूँ—मैं हूँ नायक।’’ फिर भी, परदा गिरने के बाद मुँह पर पुते प्रसाधन के रंगों की तरह सब कुछ झूठा लगने लगता है। अभिनय करना अभिनेता का काम है। पर्दे का गिरना उसके नियंत्रण में नहीं होता। यही जीवन है।
मनुष्य हमेशा आलोक की तलाश करता रहा है। आलोक की एक बूँद नजर आते ही मनुष्य चलने के नशे में जहाँ-तहाँ बढ़ने लगता है।

अँधेरे में आलोक को तलाशते हुए आगे बढ़ते समय ज़रूर झाड़-झाँखड़, कूड़े-करकट और ऊबड़-खाबड़ ज़मीन पर पैर पड़ते हैं, खून रिसता है। लेकिन घायल होने के भय से थक बैठें तो अँधेरा दबोचने लगता है। मनुष्य पंगु हो जाता है, अकर्मण्य हो जाता है—ईश्वर की तरह अकर्मण्यता, एक मानसिक स्थित है और ईश्वर एक अनुभव जो मनुष्य में स्थित जड़ता-भाव है।
‘‘कोई पंगु हो सकता है; लेकिन वह अकर्मण्य क्यों होगा?’’ यही था ओंकार का तर्क।
ट्रेन के पूरे सफर में जीवन, ईश्वर, जड़त्व, चैतन्य, क्रियाशीलता आदि पर सहयात्री मेहताजी के साथ खुलकर बहस हुई है ओंकार की। ट्रेन के डिब्बे में कुबड़े की तरह एक विकलांग, पंगु आदमी घुटनों के बल सरकते हुए बर्थ के नीचे फर्श को एक हाथ से साफ कर रहा था और दूसरे हाथ से दस पैसे के सिक्के यात्रियों के बढ़े हुए हाथों से ले रहे थे।

कच्ची मिट्टी की मूर्ति की भाँति उस आदमी का तमाम शरीर सिमट कर चिपक –सा गया था। दोनों पैर टेढ़ी-मेढ़ी हड्डियों के दो टुकड़ों की तरह बदन से चिपके हुए थे देखने से लगता था, यदि दोनों पैर बिलकुल न भी होते, तो भी उस आदमी का कुछ नुकसान नहीं हुआ होता। अब उसके दोनों पैर शरीर को अकारण भारी बनाते हुए चलने-फिरने में बाधा उपजा रहे हैं, जबकि दोनों पैर ही मनुष्य को चलने-फिरने लायक बनाते हैं

उस आदमी के दोनों हाथ ही, हाथ और पैरों के काम आते थे। अभिज्ञ ढंग से नीचे हाथों का सहारा लिए वह अष्टवक्र की तरह कूबड़ विकलांग शरीर को तेज़ गति से चलते हुए तमाम डिब्बे में धँसता जाता था। एक फटा कपड़ा लिए, तकिये की तरह तह करके डिब्बे के कूड़े-करकटों को अच्छी तरह साफ कर लेता था। दिन भर में उसने तीन बार सफाई की है डिब्बे की। जिसने जो दिया है खुशी से ले लिया है।
लगता है, अपने विकलांग शरीर के कारण उस आदमी के मन में कोई खेद नहीं है शायद कभी था भी नहीं। उसके खिले हुए चेहरे पर दुःख क्षोभ अफसोस का मानोनिशान भी नहीं है। पृथ्वी पर रह रहे चार पैरों और दो पैरों वाले जीवों की तरह वह भी मानों टेढ़े-मेढ़े पैरों वाला एक स्वाभाविक जीव है। वह आदमी जन से ही विकलांग है। पैर और तलवे का इस्तेमाल जीवन में कभी किया ही नहीं। इसके लिए उसे कभी अफसोस नहीं हुआ है; अभाव –बोध भी नहीं। जो कभी थका नहीं, कभी मिलने वाला नहीं, जीवन भर दुःखी होने से क्या लाभ ? बल्कि जो है, उसे काम में लाकर जीवन संभव हो सकता है, जिसे काम में लगाया जा सकता है, जीवन भर की ऐसी अस्वाभाविकता को धीरे-धीरे एक स्वाभाविक घटना के रूप में मनुष्य स्वीकार कर लेता है।

उस आदमी से हाथ मिलाने की इच्छा हो रही थी ओंकार की। इस तरह के काफी विकलांग लोगों को भीख माँगते हुए उसने देखा है। सबके सामने अपने विकृत-अंग को वीभत्सता के साथ प्रदर्शित करते हुए दया, सहानुभूति और कृपा को उकेरने की उनकी तमाम कोशिशों को देखकर उसे कई बार क्षोभ हुआ है।

लगता है, विकृत-अंग उनके दुःख का कारण नहीं है खुद को विकलांग के रुप में प्रतिष्ठित करने की जीवन भर की साधना, यह भिक्षा-वृत्ति ही उनके दुःख का कारण है। उन्हें दस-बीस पैसों की भीख देकर क्या गम सचमुच धर्म कर बैठते हैं ? किसी को अकर्मण्य तथा हीन मन बनने में सहायता करके मनुष्य क्या वास्तव में पुण्य कमाता है ?
किसी विकलांग व्यक्ति को देखते हैं दया, अनुकम्पा के बदले इस तरह के सवाल ओंकार के मन को झकझोरने लगते हैं, बोझिल बना डालते हैं।

आज मेहता ने ‘बेचारा अकर्मण्य है’ कहते हुए जब पचास पैसे उसके हाथ में डाल दिए, ओंकार ने प्रतिवाद करते हुए कहा था, ‘‘यह आदमी विकलांग है; लेकिन अकर्मण्य नहीं। विकलांगों को हम ही लोग उदार कहलाने की वाहवाही लेने के लिए अकर्मण्य बना डालते हैं। देखिए, आप उससे चालीस पैसे वापस ले आइए। उसे दस पैसे ही मिलने चाहिए। आप चालीस पैसे ज़्यादा क्यों देंगे ? उसने आप से माँगे तो नहीं...’’

मेहता तिलमिला उठे। कहा, ‘‘आजकल खुद दान करना तो दूर की बात है, कोई दूसरा दान करे तो लोगों को बर्दाश्त नही होता। इस बेचारे को मैंने यदि चालीस पैसे ज़्याजा दे दिए तो आप जैसे भले आदमियों की जेब से छिन जाने की तरह सिर दर्द क्यों हो रहे है ?’’ ओंकार ने प्रतिवाद करते हुए कहा, ‘‘यह आदमी आपकी तरह, मेरी तरह अपना गुज़ारा खुद करता है। वह भीख नहीं माँग रहा है, जो आप उसे चालीस पैसे ज़्यादा देकर यह सोचते हुए आत्मसन्तोष करेंगे कि पुण्य कमा लिया। सुबह से तीन बार वह इस डिब्बे को साफ कर चुका है और हर एक से दस पैसे ही माँगता है। आप थोड़े पैसे ज़्यादा देकर भिक्षा-वृत्ति को क्यों उत्साहित कर रहे हैं ?’

मेहता किसी भी हालत में उस आदमी से चालीस पैसे वापस लेना नहीं चाहते हैं। दान में दी हुई रकम वापस लेने से उनकी उदारता मिट्टी में मिल जाएगी। ओंकार के साथ बहस में हारते हुए भी अपनी हार कबूल करने को तैयार नहीं हैं ! इस बीच मेहता और ओंकार का पक्ष लेते हुए यात्री भी दो गुटों में बँट चुके हैं। दो गुटों मे चल रही बहस और गहमागहमी के बीच उस विकलांग ने कहा—‘‘मुझे लेकर आप लोगों में यह हो-हल्ला क्यों ? बाबू जी ने यदि चालीस पैसे ज़्यादा दे दिए हैं, तो उसमें आप क्यों टाँग अड़ा रहे हैं ? हम जैसे अभागों पर आप लोग यदि कृपा नहीं करेंगे तो हम लोगों का क्या हाल होगा ? आज आप लोगों की कृपा पर ही जी रहा हूँ। बरसात के मौसम के कारण भीख माँगने में दिक्कत हो रही है, इसलिए मैं कुछ दिनों से ट्रेन में घूमते-फिरते हुए यह काम कर रहा हूँ। वर्षा-ऋतु के बाद फिर से भीख माँगने के लिए सड़क पर उतर जाऊँगा....’’

दूसरे लोग अब उस आदमी के पक्ष में हो गए। प्रकारान्तर से मेहता के पक्ष में। करुणा से हृदय पसीज रहा है। उस आदमी की ओर निहारते हुए ‘आह’ ‘आह’ कर रहे हैं। इन सब के बीच ओंकार ही अकेला निर्दयी और कंजूस लग रहा है। जिस आदमी के मानवीय अधिकार और सम्मान की माँग करते हुए ओंकार बहस कर रहा था, वह आदमी भी ओंकार के खिलाफ हो गया है।

अपनी बात की यथार्थता इन्हें समझाना ओंकार के बस की बात नहीं है। विकलांग का एकमात्र सहारा है भिक्षावृत्ति तथा औरों की दया करुणा-इस तरह की मान्यता सभी की नस-नस में समा गयी है।

ओंकार नीरस हो जाता है; लेकिन मन-ही-मन बुदबुदाने लगता है। आने वाले कुछ ही स्टेशनों के बाद वह उतर जाएगा। मेहता के साथ फिर कभी मुलाकात हो सकती है—न भी हो सकती है। ट्रेन में ही मेहता के साथ ओंकार का परिचय हुआ है। क्या फायदा उससे बहस करके ?

फिर भी ओंकार का मन उदास हो जाता है। कई वर्षों के बाद वह अपने देश लौटा है। लौट रहा है अपनी जन्मभूमि की ओर, अपने प्रिय शहर की ओर, सबसे प्रिय गाँव की ओर। पिछले पन्द्रह वर्षों से उसने अपने शहर को देखा ही नहीं है। हाई स्कूल पास होने के बाद अपने शहर को छोड़ चला गया था एक और शहर में उच्च-शिक्षा प्राप्त करने के लिए। उच्च-शिक्षा समाप्त होते ही एक मेधावी-वृत्ति पाकर उच्चतर अनुसंधान के लिए देश छोड़ कर विदेश गया था। रहते-रहते विदेश में रह गया नौ साल तक ! इन्हीं कुछ वर्षों में जिस तरह उसकी खुद की सर्वांगीण उन्नति हुई है, उसी तरह की सन्तोषजनक प्रगति उसके देश की ओर और शहर की भी हुई होगी ऐसी, कल्पना ओंकार ने मन-ही-मन कर ली थी लेकिन लौटकर देखता है कि पन्द्रहवर्षों का अन्तराल उसके देश में मानों एक स्थिर बिन्दु बनकर रह गया हो। विषय-सम्पत्ति की बात ज़रूर समय-सापेक्ष है, लेकिन मानसिक स्तर पर भी लोग जहाँ थे, वहीं हैं अब भी मेहता जैसे उच्च-शिक्षित लोग सोचते हैं कि विकलांग का अर्थ है अकर्मण्य होना तथा विकलांग को दान देना और दया दिखाना ही समाज का कर्तव्य है।
विज्ञान के युग में पन्द्रह वर्षों का समय अन्तराल कुछ कम नहीं होता—फिर भी उसके देश में एक वक्त की रोटी के लिए हाथ पसारकर भीख माँगना एक निहायत मामूली बात है। कई वर्षों के बाद यह सब देखकर उसे काफी ठेस लगी है।


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